अचला शर्मा
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हों या प्राध्यापक, हिंदी के कवि हों या कथाकार, मित्र हों या सहकर्मी, जो कोई उनके आसपास से गुज़रा, वह डॉ निर्मला जैन की साफ़गोई और बेबाकी से अनजान नहीं होगा। इसलिए, आश्चर्य नहीं कि अपनी आत्मकथा, ‘ज़माने में हम’ में भी डॉ निर्मला जैन ने पाठकों को निराश नहीं किया। वही स्पष्टवादी तेवर, जिसके लिए वे मित्रों और आलोचकों के बीच जानी जाती हैं, यहाँ भी दिखाई देते हैं।
इस आत्मकथा में पाठक को एक तरफ़ उनके बचपन और आरंभिक वैवाहिक जीवन के उन कोनों में झाँकने का मौक़ा मिलता है जिनसे अब तक सिर्फ़ परिजन और अंतरंग मित्र ही परिचित रहे होंगे।इनमें पुरानी दिल्ली के एक परिवार की संघर्षकथा के साथ-साथ एक आम भारतीय लड़की के पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनने की कहानी उजागर होती है। दूसरी तरफ़ ऐसे संस्मरण हैं जिनमें हिंदी के आम पाठक की विशेष रूचि होगी। उन प्रसंगों और घटनाओं का संबंध दिल्ली विश्वविद्यालय और उसकी राजनीति, लेडी श्रीराम कॉलेज और विश्वविद्यालय में डॉ निर्मला जैन के प्राध्यापनकाल और साहित्यकारों से है।
साठ-सत्तर के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का वह कौन सा छात्र होगा जो हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ नगेंद्र के नाम और व्यक्तित्व से अपिरिचत होगा। लेकिन निर्मला जैन की लेखनी से डॉ नगेंद्र के व्यक्तित्व का रौब उन पाठकों पर भी पड़ता है जिन्होंने डॉ नगेंद्र को कभी देखा न होगा। “उनके पूरे व्यक्तित्व पर सायास अर्जित शालीनता और मार्दव का ऐसा ख़ोल चढ़ा रहता था जो उनके प्रति आकर्षित तो करता ही था, देखने वाले को आतंकित भी करता था। वे अकेले कम ही निकलते थे। प्रायः उनके अग़ल-बग़ल अधीनस्थों या फिर ख़ुशामदियों की एक जोड़ी कुछ घिघियाती सी मुद्रा में उनके मुख से झरते वचनामृतों का पान करती चलती दिखाई देती थी।”
डॉ नगेंद्र की पुस्तक ‘रस सिद्धांत’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार कैसे मिला, बल्कि उन्होंने अपनी छत्रछाया में शोध कर रहे कवि भारत भूषण अग्रवाल की ‘बाँह मरोड़कर’ उसे कैसे हासिल किया, यह क़िस्सा भी बयान करने में डॉ जैन ने संकोच नहीं किया। यह वह ज़माना था जब मुक्तिबोध बहुत बीमार थे और दिल्ली में अस्पताल में भर्ती थे, और लेखक समुदाय का एक बड़ा वर्ग यही चाहता था कि उस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार मुक्तिबोध को मिले। नतीजा यह हुआ कि डॉ नगेंद्र और डॉ नामवर सिंह के बीच पाले खिंच गए।
दिल्ली विश्वविद्यालय के गलियारों की राजनीति से हट कर डॉ निर्मला जैन ने अपनी आत्मकथा में साहित्यिक मित्रमंडली और समकालीन कवियों से जुड़े कुछ संस्मरण भी शामिल किए हैं। जैसे कथाकार जोड़ी मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव के दिल्ली आने के बाद अक्षर प्रकाशन की नींव कैसे पड़ी। निर्मला जी ने यह क़िस्सा बयान करते हुए राजेन्द्र यादव के बारे में बेझिझक कहा है-“मन्नू के ठलुआ पति की भूमिका से निजात पाने के लिए उन्होंने मन ही मन अक्षर प्रकाशन खोलने की भूमिका बनाई।”
इसी प्रसंग में डॉ जैन ने नयी कहानी आंदोलन के तीन नायक माने जाने वाले लेखकों के आपसी मनमुटाव का भी ज़िक्र किया है। लिखती हैं- “मोहन राकेश से तो राजेन्द्र जी के संबंधों में इतनी दरार आ चुकी थी कि दोनों के बीच अनबोला हो गया था। उस समय कमलेश्वर भी जगह जगह हाथ-पैर मारने के बाद मुंबई चले गए थे। आपसी प्रतिस्पर्धा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मोहन राकेश ने जब ‘सारिका’ का संपादन छोड़ा तो राजेन्द्र यादव ने उस पद को स्वीकार करने से इसलिए इन्कार कर दिया कि वे राकेश की छोड़ी हुई ज़िम्मेदारी को अपनाने में अपनी हेठी समझते थे।”
लेडी श्रीराम कॉलेज के कार्यकाल में छात्राओं को तत्कालीन कवियों की रचनाओं का रसास्वादन कराने के लिए उन्होंने अपने ज़माने के महत्वपूर्ण कवियों को आमंत्रित करने का सिलसिला शुरू किया।इनमें दो क़िस्से ख़ासतौर पर रोचक हैं। कवि रामधारी सिंह दिनकर के पास निमंत्रण गया तो तो उधर से अनुरोध आया, “किसी को लिवाने के लिए भेज दीजिएगा।” इस पर डॉ नगेंद्र ने आगाह किया, “किसी लड़की को अकेले मत भेज देना उन्हें लाने के लिए”। डॉ नगेंद्र की चेतावनी में क्या निहित था, यह तो स्पष्ट नहीं मगर वास्तविकता यह है कि कॉलेज में दिनकर जी के काव्यपाठ का आयोजन बेहद सफल रहा।
एक और कविगोष्ठी का क़िस्सा भी रोचक है जिसकी अध्यक्षता के लिए अज्ञेय जी को आमंत्रित किया गया। अज्ञेय जी को बुलाने की ज़िम्मेदारी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को सौंपी गई। लेकिन अज्ञेय जी का कहीं पता नहीं था। निर्मला जी लिखती हैं-“प्रतीक्षा करते करते जब ४५ मिनट हो गए और श्रोताओं में खलबली मचने लगी तो तो मैंने धीरे से शमशेर जी से आसन ग्रहण करने का अनुरोध किया। वे भीरू इन्सान, इस प्रस्ताव से ही घबरा गए। बोले, थोड़ी देर और देख लेते हैं।
लगभग एक घंटा हो चुका था। वे सकुचाते हुए अध्यक्ष के आसन की तरफ़ बढ़ ही रहे थे कि सहसा हॉल के प्रवेश द्वार पर अज्ञेय जी की भव्य आकृति प्रकट हुई। वे मंथर गति से आए। बिना कोई सफ़ाई दिए या पछतावा जताए, अध्यक्ष के आसन पर विराजमान हो गए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। गोष्ठी तो संपन्न हो गई- राज़ी ख़ुशी, बिना किसी झंझट के। बाद में धीरे से आमंत्रित कवियों ने बताया कि आयोजनों में निर्धारित समय के बाद देर से आना अज्ञेय जी की अदा है, ताकि श्रोताओं की जिज्ञासा और बेकली अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाए। और उसके बाद बड़े शाही अंदाज़ में मौक़े पर उनकी एंट्री हो।”
ज़ाहिर है, ‘ज़माने में हम’ निर्मला जैन की आठ दशकीय जीवन यात्रा में उनके दायरे में आने वाले लोगों से जुड़े उनके अनुभवों का वृत्तांत है। या यूँ कहें कि ये डॉ निर्मला जैन के ज़माने के लोग हैं, जिन्हें पाठक इस आत्मकथा में उनकी नज़र से देखता है।सहमति-असहमति का प्रश्न इसलिए नहीं उठता क्योंकि लेखिका स्वयं इन संस्मरणों के ‘आधे अधूरे सच से ज़्यादा होने का दावा नहीं करतीं।’ लेकिन यह सच है कि उनकी नज़र जितनी बेबाक ज़माने के लिए है उतनी ही अपने निजी जीवन के लिए।
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