एक थमा हुआ आवेग:मुक्तिबोध
अचला शर्मा

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं
आज भी नवीन प्रेरणा यहाँ न मर सकी,
न जी सकी, परंतु वह न डर सकी।

मुक्तिबोध की यह पंक्तियाँ हर कुछ वर्षों के अंतराल के बाद पुकारती हैं। याद दिलाती हैं कि हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध के योगदान की पुनर्समीक्षा की अनिवार्यता को अनदेखा नहींकिया जा सकता। यह वर्ष मुक्तिबोध की जन्मशती का वर्ष है। भारत में कई गोष्ठियाँ हो रही हैं, उनकी रचनाओं पर आज के संदर्भों, मौजूदा राजनीतिक, सांस्कृतिक और अंतर्राष्ट्रीयपरिवेश में पुनर्विचार हो रहा है। बात सिर्फ़ औपचारिकता निभाने की नहीं, क्योंकि कवि शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में, “ मुक्तिबोध की कविता हमारी बातें हमीं को सुनाती है। औरहम अपने को चकित होकर देखने लगते हैं और पहले से और भी अधिक पहचानने लगते हैं।” शायद आज इस आत्म परिचय और आत्ममंथन की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है।मुक्तिबोध कहते हैं-

जितने भी हल हैं प्रश्नों के
वे हल जीने के पूर्व मरे।
उनके प्रेतों के आसपास
दार्शनिक दुखों की गिद्ध सभा
आँखों में काले प्रश्न भरे बैठी गुमसुम।

१९१७ में मुक्तिबोध का जन्म हुआ और १९६४ में निधन। अपने अल्प जीवनकाल में उन्होंने भारत और विश्व का एक लंबा रक्तरंजित अध्याय देखा। यूरोप में फ़ासिस्ट शक्तियों का उदय,स्पेन का गृहयुद्ध, पूँजीवाद का प्रसार, भारत में दमनकारी अंग्रेज़ी शासन, आज़ादी का संघर्ष, सत्याग्रह, सामंती और सांप्रदायिक प्रतिक्रियाएँ। आज़ादी के बाद के मोहभंग और विखंडितहोती मूल्य व्यवस्था के भी वे साक्षी रहे। इस सबके बीच मध्यवर्ग के दैनिक संघर्ष और मज़दूरों की दुर्दशा भी उन्होंने नज़दीक से देखी। गांधीवाद से मार्क्सवाद की ओर उन्मुख होते हुएमुक्तिबोध ने बालज़ाक, दॉस्तॉयवस्की, टॉलस्टॉय और गोर्की जैसे लेखकों को पढ़ा। लेकिन तमाम प्रभावों को ग्रहण करने के बावजूद वे किसी एक वाद या ख़ेमे की छाया में नहीं रहे।अपने मूल्य उन्होंने स्वयम् गढ़े। शायद यही कारण है कि उनकी कविताओं की व्याख्या सबने अपने अपने काव्यात्मक मानदंडों के अनुसार की। वामंथियों और कलावादियों ने अपनेअपने सैद्धांतिक उपकरणों के सहारे इन कविताओं के दुरूह संसार को समझने की कोशिश की है। वामपंथी मानते हैं कि मुक्तिबोध को समझने के लिए मार्क्सवादी विचारधारा कोसमझना ज़रूरी है। लेकिन, शमशेर बहादुर सिंह ने मुक्तिबोध के पहले कविता संकलन ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ की भूमिका में कहा है-

“मुक्तिबोध ने छायावाद की सीमाएँ लाँघ कर, प्रगतिवाद से मार्क्सवादी दर्शन ले, प्रयोगवाद के अधिकांश हथियार संभाल और उसकी स्वतंत्रता को महसूस कर, स्वतंत्र कवि रूप से , सबवादों और पार्टियों से ऊपर उठकर, निराला की सुथरी और खुली मानवतावादी परंपरा को आगे बढ़ाया।”

मुक्तिबोध की पंक्तियाँ हैं-

मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता।

या फिर, ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में वे कहते हैं,

गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन रात
स्वच्छ करने
ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह।

मुक्तिबोध की कविताओं का प्रतीक और बिंब संसार एक अजब दुरूह संसार है। उनके प्रतीक और बिंब अमूर्त होते हुए भी मूर्त हैं। जैसे कोई चित्रकथा हो। कई समीक्षक मानते हैं किउनके ये बिंब जासूसी और विज्ञान कथाओं का सा माहौल बनाते हैं।यहाँ कोई गहरा षड़यंत्र है, कोई छिपा हुआ रहस्य है, सूने खंडहर हैं, टीले हैं, गुफ़ाएं हैं, तल तक जाती सीड़ियां हैं,दिमाग़ी ओरांग ओटांग है, कोई परित्यक्त सूनी बावड़ी है और बावड़ी में छिपा बैठा ब्रह्मराक्षस। यह ब्रह्मराक्षस उनकी कई कविताओं में मौजूद है, अंतर्मन के रूप में। बकौल कविअशोक वाजपेयी, “ मुक्तिबोध की कविता के तीन बीज शब्द हैं- आत्मसंघर्ष, अंत:करण, आत्माभियोग।” मुक्तिबोध की पंक्तियाँ हैं-

सूखता न मैं, बनता न ठूँठ
यदि पत्राच्छद-आशृत रखता सबको समान।

आत्मबोध, आत्मविश्लेषण मुक्तिबोध के यहाँ बार बार दिखाई देता है। एक और कविता की पंक्तियाँ हैं,

स्वार्थ सफलता के पहाड़ी ढाल पर
चढ़ती है हाँफती
आत्मा की कुतिया।

‘अंधेरे में’ कविता में यह आत्माधिक्कार का स्वर एक पागल की ज़बानी और मुखर है,

अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज़्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम।

लेकिन समझने की बात यह है कि मुक्तिबोध जिस आत्माभियोग की बात करते हैं, वह समूचे बुद्धिजीवी वर्ग का दायित्व बन जाता है। वे समाज, सत्ता और राष्ट्र के बीच बौद्धिक ज़िम्मेदारीका प्रश्न उठाते हैं।’अंधेरे में’, उनकी लंबी कविता है जिसमें बुद्धिजीवी और लेखक को खुली चुनौती है-

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

‘अंधेरे’ में कविता को कवि और समालोचक निश्चय ही हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण कविता मानते हैं जिसमें मुक्तिबोध ने कथ्य और शिल्प के सारे गढ़ तोड़ डाले। किसी ने उसे फ़ैंटेसीकहा तो किसी ने स्वप्न कथा। किसी की नज़र में वह ‘साहित्यिक अस्मिता की खोज है’, तो किसी की दृष्टि में ‘स्वाधीनता से पहले और बाद, देश के आधुनिक जन इतिहास का इस्पातीदस्तावेज़’ किसी ने उसे ‘पिकासो की काव्यात्मक गुएरनिका’ की संज्ञा दी तो किसी ने ‘खंडित रामायण’ की। शायद ‘अंधेरे में’ कविता इन सबका मिश्रण है या इनमें से कुछ भी नहीं।शायद, वह सिर्फ़ पिछली सदी से लेकर इस सदी तक अनवरत गूँजती हुई एक निर्बाध पुकार है जो तब भी प्रासंगिक थी और आज भी है। बस उसे सुनने वाले कान चाहिएं। मुक्तिबोध नेइस कविता में न सिर्फ़ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए बल्कि अपने समय पर बेबाक टिप्पणी भी की।

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक शिल्पकार नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदंती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोगशिरा जाल में उलझे।

२०१४ में ‘अंधेरे में’ कविता की पचासवीं वर्षगाँठ थी। यह वर्ष उनकी ‘पुस्तक भारत: इतिहास और संस्कृति’ के प्रकाशन की अर्धशती का वर्ष भी था। इस पुस्तक को तत्कालीनमध्यप्रदेश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। १९६३ में अदालत ने पुस्तक के प्रतिबंधित अंश निकालकर प्रकाशन की अनुमति दे दी। लेकिन मुक्तिबोध को सर्वाधिक आघात इस बातसे लगा कि पुस्तक का विरोध करने वालों में वामपंथी भी शामिल थे। उनकी कविता ‘भूल ग़लती’ की पंक्तियाँ हैं-

वह क़ैद कर लाया गया ईमान
सुल्तानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ़ नीली बिजलियों को फेंकता
ख़ामोश।
मनसबदार शायर और सूफ़ी
अल ग़ज़ाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फ़ाज़िल सिपहसालार, सब सरदार
हैं ख़ामोश।

सत्ता और लेखक का परस्पर टकराव हर युग में, हर जगह रहा है। कवियों और लेखकों की रचनाओं पर प्रतिबंध पहले भी लगते थे, आज भी लगते हैं। इतिहास का रूप सत्ता पक्षसुनिश्चित करता है, पाठ्य पुस्तकों का चयन सत्तानुकूल होता है। पर बड़े कवि सत्ता के अनुमोदन के मोहताज नहीं होते। वे न सिर्फ़ अपने समय को चुनौती देते हैं बल्कि परवर्ती समय कोभी चेतावनी देते हैं। यही वजह है कि फ़ैज़ और मुक्तिबोध जैसे कवि प्रासंगिक रहे हैं, और हैं। मुक्तिबोध की यह पंक्तियाँ जैसे आज ठोकर मारकर जगाती हैं-

भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गए
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थूल।
गढ़े जाते संवाद, गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन मन उर शूर।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास
किराए के विचारों का उद्भास।
बड़े बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गईं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गई,
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई।

चालीस के दशक में तारसप्तक आ चुका था, जिसमें मुक्तिबोध की कविताएँ भी शामिल थीं लेकिन उनके जीवनकाल में उनका कोई निजी कविता संकलन नहीं छप सका। मुक्तिबोध कोउनकी कीर्ति अपने जीवित रहते नहीं मिली। और शायद इसका आभास उन्हें हो गया था।और शायद इसीलिए उन्होंने कहा-

इस उस ज़माने के धँसानों में से
उमड़ते हैं अंधेरे के मेघ
मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग,
रुका हुआ एक ज़बरदस्त कार्यक्रम
मैं एक स्थगित हुआ अगला अध्याय
अनिवार्य,
आगे धकेली गई प्रतीक्षित
महत्वपूर्ण तिथि,
मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य।

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