“सच का पता पाने की
ऐसी हर ईमानदार कोशिश को
जिसकी पहुँच
अपने समय और समाज के साँचों की सरहदों से परे भी
सही साबित हो”
कैलाश बुधवार की पुस्तक ‘लंदन से पत्र’ का समर्पण।

कैलाश बुधवार (11 अप्रैल 1932 – 11 जुलाई 2020) के निधन के साथ बीबीसी हिन्दी सेवा के स्वर्णिम युग का आख़िरी गवाह भी डूबते सूरज की अंतिम किरणों की आभा की तरह लुप्त हो गया। शेष हैं हिंदी प्रसारण की दुनिया में उनके महत्वपूर्ण योगदान की स्मृतियाँ और उनकी गंभीर आवाज़ की गूँज। 

कैलाश बुधवार के निधन का समाचार सुना तो पहले पहल लगा ख़बर झूठी है। बीबीसी के पुराने उसूलों को याद करते हुए जब तक दो सूत्रों से पुष्टि नहीं कर ली, यक़ीन नहीं हुआ। यह तो मालूम था कि कैलाश जी एक अर्से से बीमार चल रहे थे। कभी-कभी फ़ोन पर उनकी पत्नी विनोदिनी जी से बात होती तो कैलाश जी का हाल-चाल जानने को मिल जाता। ख़ुशक़िस्मती से लगभग एक महीना पहले ख़ुद कैलाश जी से बात हुई। आवाज़ में वही खरज, वही पुराना जोश और वही चिर-परिचित डायलॉग “वाह दोस्त मज़ा आ गया!”

मैंने वादा किया कि जब भी लॉकडाउन खुलेगा मैं मिलने आऊँगी।लेकिन कोरोना के माहौल में यह मुमकिन ना हो सका।

मैंने जनवरी 1981 में बीबीसी हिंदी सेवा में क़दम रखा। लेकिन लंदन पहुँचने से पहले कैलाश बुधवार से मेरी एक छोटी सी मुलाक़ात दिल्ली में हो गई थी। बात नवंबर 1980 की है। बीबीसी हिंदी सेवा में मेरी नियुक्ति निश्चित हो चुकी थी और लंदन जाने में कुछ ही दिन बचे थे। उन दिनों मैं आकाशवाणी के युववाणी विभाग में काम करती थी। एक दोपहर अचानक कैलाश जी मुझसे मिलने आए। पता चला कि वे प्रिंस चार्ल्स की भारत यात्रा की रिपोर्टिंग के लिए भारत आए हुए हैं। उन्होंने लगभग पाँच मिनट मुझसे इधर-उधर की बातें कीं, और चलते चलते बस यह कहा, “दोस्त, सूती साड़ियाँ मत लेकर आना। मेरी पत्नी अक्सर शिकायत करती है कि लंदन में सूती साड़ियाँ सुखाना और प्रेस करना बड़ा मुश्किल है।” उनके सरल और दोस्ताना स्वभाव से यह मेरा पहला परिचय था।

अपने पूरे कार्यकाल में कैलाश जी ने कभी किसी को इस बात का एहसास नहीं कराया कि वे बॉस हैं। सबके साथ निष्पक्ष और स्नेही व्यवहार रहा उनका। उनके ज़माने में बीबीसी बुश हाउस की कैंटीन में सुबह ग्यारह बजे की चाय का चलन था। बुश हाउस में यह बात मशहूर थी कि ग्यारह बजे हिंदी सेवा के लोग कैंटीन में मिलते हैं। खुद कैलाश जी हर कमरे के दरवाज़े में झाँक कर कहते थे- क्यों दोस्त हो जाए चाय? ज़ाहिर है,  हम सब झट से तैयार हो जाते और कैलाश जी के मुँह से निकलता, वाह दोस्त मज़ा आ गया।

कैलाश जी की अध्यक्षता के दौर में बीबीसी हिंदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी।

कैलाश जी का जन्म कानपुर में हुआ लेकिन दिल लखनवी मिज़ाज का था और सपने रंगमंच, फ़िल्म और बंबई के थे। बंबई में उन्हें पृथ्वी थियेटर्स और स्वयम् पृथ्वीराज कपूर की पनाह में अपनी अभिनय कला के प्रदर्शन का सुयोग मिला। यही नहीं अपनी अभिनय कला को माँजने के लिए उन्होंने पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट में कोर्स किया। लेकिन सपनों की राह में आजीविका की मजबूरियाँ खड़ी थीं। और फिर घर परिवार की तरफ़ से एक बड़ा सवाल यह भी था कि ‘नौटंकी करने वाले को कौन अपनी लड़की देगा, कोई इज़्ज़त की नौकरी होनी चाहिए’। 

कैलाश बुधवार ने मथुरा के किशोरी रमण कॉलेज से इतिहास में एम ए किया था। इसलिए स्वाभाविक था कि रोज़ी रोटी के लिए अध्यापन का रास्ता चुना। प्रसारण की दुनिया में क़दम रखने से पहले वे राँची के विकास विद्यालय और करनाल स्थित सैनिक स्कूल में अध्यापन कर चुके थे। अभिनय का नशा बरक़रार था। बीच बीच में आकाशवाणी के कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर शौक़ पूरा कर लेते।

कैलाश जी के करनाल वास के ज़माने में बीबीसी पूर्वी सेवा के अध्यक्ष मार्क डॉड करनाल गए। 1990 में बीबीसी हिंदी की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर प्रकाशित पुस्तक में उन्होंने ने लिखा, “कैलाश बुधवार से मैं साठ के दशक के मध्य में पहले ही करनाल में मिल चुका था। एक अध्यापक के रूप में अपने काम के प्रति उनमें जो उत्साह तब देखने में आया था, अपने बीबीसी के कार्यजीवन में वह उसी का परिचय देते आ रहे हैं।”

सन् 1970 में कैलाश बुधवार ने बीबीसी हिंदी में क़दम रखा। उस समय हिंदी सेवा बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की पूर्वी सेवा का हिस्सा थी। बीबीसी पूर्वी सेवा में हिंदी के अलावा उर्दू, बांग्ला, तमिल आदि भाषाएँ शामिल थीं। बीबीसी हिंदी में उस दौर के कई दिग्गज प्रसारक थे, जैसे रत्नाकर भारती, आले हसन, पुरुषोत्तम लाल पाहवा, गौरीशंकर जोशी, हिमांशु भादुड़ी। इनके बीच अपना स्थान बनाना और अपनी प्रतिभा और अपनी मेहनत से कुछ ही वर्षों में बीबीसी हिंदी सेवा का कार्यक्रम संचालक बन जाना एक बड़ी उपलब्धि थी। और यह भी भूलने की बात नहीं कि सत्तर का दशक बीबीसी हिंदी के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण समय था। इस दौरान भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ, 1971 में बांग्लादेश बना, 1975 से 1977 तक भारत में आपातकालीन स्थिति लागू रही और 1980 में श्रीमती इंदिरा गाँधी सत्ता में लौटीं। क़दम क़दम पर बीबीसी हिंदी के सामने अपनी विश्वसनीयता और निष्पक्षता बरक़रार रखने की चुनौती थी।

इसी दशक के अंत में कैलाश बुधवार बीबीसी हिंदी और तमिल सेवाओं के कार्यक्रम संचालक नियुक्त हुए। उन दिनों भाषाई विभागों के अध्यक्षों को प्रोग्राम आर्गनाइज़र कहा जाता था। और अगर बीबीसी हिंदी के पहले सलाहकार और संचालक ज़ेड ए बुख़ारी का नाम छोड़ दिया जाए (जो 1940 में हिंदुस्तानी सेवा की स्थापना के समय नियुक्त किए गए थे) तो कैलाश जी पहले भारतीय थे जिन्हें विभागाध्यक्ष का पदभार सँभालने का गौरव हासिल हुआ।

उनसे पहले सिर्फ़ अंग्रेज़ ही हिंदी सेवा का संचालन करते रहे थे। हालाँकि उनमें बहुत से नाम ऐसे हैं जो पत्रकारिता की दुनिया में आज भी सम्मान से याद किए जाते हैं। बीबीसी के भारत में पूर्व संवाददाता मार्क टली उनमें से एक हैं जिन्होंने साठ के दशक में दिल्ली जाने से पहले हिंदी सेवा का दायित्व सँभाला था। सत्तर के दशक में बीबीसी हिंदी को भारत के जाने माने अंग्रेज़ी दैनिक ‘दि स्टेट्समैन’ के पूर्व संपादक एवन चार्ल्टन का नेतृत्व मिला।  1977 में उनके सेवा निवृत्त होने के बाद कुछ समय के लिए टोयेन मेसन ने यह ज़िम्मेदारी सँभाली और फिर आए कैलाश बुधवार, जिन्होंने 1992 तक, यानी लगभग चौदह वर्षों तक बीबीसी हिंदी और तमिल सेवाओं का सफल संचालन किया।

मैंने और मेरी पीढ़ी के कई प्रसारकों ने उसी ज़माने में बीबीसी हिंदी में क़दम रखा जब हिंदी सेवा की लोकप्रियता का कोई सानी नहीं था। हिंदी सेवा के अध्यक्ष कैलाश बुधवार और उपाध्यक्ष ओंकारनाथ श्रीवास्तव के नेतृत्व में बीबीसी हिंदी सेवा ने अपनी लंबी यात्रा के कई महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए।उनकी देखरेख में कई नए कार्यक्रम शुरू हुए। हिंदी की तीन प्रसारण सभाओं में देर रात की एक और सभा जुड़ी- ‘पिछले पहर’, जिसका नाम कुछ वर्षों बाद बदल कर ‘घटनाचक्र’ रखा गया। लेकिन शाम का ‘आजकल’ कार्यक्रम अपने आख़िरी दम तक हिंदी सेवा का सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कार्यक्रम रहा। यह वह कार्यक्रम था जिसे इमेरजैंसी के ज़माने में जेलों में बंद विपक्षी नेता भी नियमित रूप से सुनते थे, छात्र देश दुनिया की ख़बरों का विश्लेषण सुनकर कॉम्पटिशन परीक्षाओं की तैयारी करते थे और सुदूर गाँवों में बसा आम आदमी जिसके पास देश और दुनिया के समाचार जानने का और कोई साधन नहीं था, ख़ुद को दुनिया का नागरिक समझता था। यह वह समय था जब बीबीसी हिंदी भारत में समाचारों का एकमात्र निष्पक्ष माध्यम माना जाता था।

बीबीसी हिंदी की यह अकाट्य और अतुलनीय लोकप्रियता कैलाश जी के सेवानिवृत्त होने तक क़ायम थी। उनके कार्यकाल में भारत और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं जिनके समाचार श्रोताओं तक पहुँचाने में बीबीसी हिंदी पेश-पेश रही। भारत में श्रीमती गाँधी की हत्या हुई जिसका समाचार राजीव गाँधी ने बीबीसी पर सुना, बर्लिन की दीवार टूटी, सोवियत संघ का विघटन हुआ, दक्षिण अफ़्रीका में नैल्सन मंडेला 27 वर्षों की क़ैद के बाद रिहा हुए, इराक़ के नेता सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया, 1991 में राजीव गाँधी की मृत्यु हुई और इस समाचार पर आधारित हिंदी सेवा के प्रातःकालीन कार्यक्रम ‘विश्वभारती’ को एशिया पैसिफ़िक ब्राडकास्टिंग यूनियन का पुरस्कार मिला। लेकिन नब्बे के दशक में जैसे जैसे भारत में मीडिया क्रांति की बयार तेज़ होती गई, बीबीसी हिंदी के श्रोताओं की संख्या में भी कमी आनी शुरू हुई। कैलाश बुधवार की अध्यक्षता में बीबीसी के लिए काम करने वाले मुझ जैसे लोग ख़ुशक़िस्मत हैं कि उन्होंने बीबीसी हिंदी की लोकप्रियता का स्वर्णिम युग अपनी आँखों से देखा।

1990 में बीबीसी हिंदी की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर मुझे कैलाश जी के साथ भारत के चार हिंदी भाषी प्रदेशों में बीबीसी की परिचर्चाएँ आयोजित करने का सौभाग्य मिला। श्रोताओं से मिलने और बीबीसी के प्रति उनकी निष्ठा को देखने का मेरे लिए यह पहला और अविस्मरणीय अनुभव था। कुछ वर्ष पहले बीबीसी हिंदी की 75 वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर कैलाश जी और मैंने एक बार फिर हिंदी सेवा की महत्वपूर्ण उपलब्धियों और प्रसारणों को याद करते हुए एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया।

अध्यक्ष होने के नाते कैलाश जी की ज़िम्मेदारियाँ इतनी बढ़ गईं थीं कि उन्हें स्वयं कार्यक्रमों में हिस्सा लेने का समय नहीं मिल पाता था। हिंदी के पुराने श्रोता एक ज़माने तक उनकी पुरानी कार्यक्रम शृंखला ‘मनुष्य का उत्कर्ष’ की प्रशंसा में पत्र लिखते रहे और उसके पुनर्प्रसारण की फ़रमाइश करते रहे। लेकिन अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद कैलाश जी अपने एक साप्ताहिक स्तंभ के लिए समय निकाल लिया करते थे- लंदन से पत्र। इस स्तंभ का दायित्व उन्होंने पहले पहल 1970 से 1972 के बीच सँभाला और फिर 1988 से 1991 तक। लंदन से पत्र के बहाने उन्हें देश दुनिया के सामाजिक, राजनीतिक और विविध पहलुओं में झाँकने और उन पर अपनी लेखनी चलाने का अवसर मिल जाता। यह स्तंभ बेहद लोकप्रिय हुआ। 

हम पुराने सहयोगियों के इसरार पर कुछ वर्ष पहले 2012 में कैलाश जी अपने लिखे लंदन से पत्र पुस्तक रूप में प्रकाशित कराने के लिए राज़ी हो गए। पुस्तक दो खंडों में प्रकाशित हुई। एक खंड के फ़्लैप पर कवि अजित कुमार ने लिखा है-

“हम जानते हैं कि समय के साथ बहुत कुछ अतीत हो जाता है, पर बहुत सा अतीत वह भी होता है, जिसका अवगाहन उनमें निहित नवता को भी हमारे लिए उद्घाटित करता है”

निश्चित रूप से यह पुस्तक पाठकों को गुज़रे समय की कई छोटी बड़ी घटनाओं के आईने में एक बार फिर दुनिया का आकलन करने पर मजबूर करती है। कभी कभी लगता है कि कई मौक़ों पर कैलाश जी ने न सिर्फ़ अपने वर्तमान में झाँक कर देखा बल्कि आने वाले कल की सुगबुगाहट भी सुन ली। ‘लंदन से पत्र’ के दूसरे खंड के अंतिम पत्र का शीर्षक है- संघीय शासन। संदर्भ टूटने के कगार पर खड़ा यूगोस्लाविया है।
कैलाश जी लिखते हैं-

“छोटे छोटे राष्ट्र विश्वयुद्ध की आग में एक दूसरे को न झोंक पाएँ- इसके लिए संघीय ताने बाने की, सहयोगी संस्था की आवश्यकता आज पहले से कहीं प्रबल है। इनसे केंद्र के अधिकारों में वृद्धि नहीं होगी- इस संभावना को बल मिलेगा कि एक राष्ट्र के भीतर बसे भाँति भाँति के एकांशों को आत्मनिर्णय की भूमि मिल सके। सत्ता के ऐसे अनेक अलग अलग सूत्रों को एक माला में पिरोकर, माला के दानों का बिखराव रोकना कहीं आसान होगा। इसलिए एक ओर जहाँ यूरोप में आत्मनिर्णय की माँगें उठ रही हैं, वहीं साथ ही यह भावना भी घर करती जा रही है कि आज के युग में कोई राष्ट्र सबसे कटकर अलग थलग अपनी अलग डफ़ली नहीं बजाता रह सकता।संघीय ढाँचा और स्वशासन, एक दूसरे के विरोधी नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं।”

कैलाश जी की सधी हुई मगर आत्मीय भाषा और आवाज़ में कितना जादू था, बीबीसी के श्रोता इससे परिचित थे। मगर इसका एक और प्रमाण पृथ्वीराज कपूर के एक छोटे पत्र में मिलता है जो ‘लंदन से पत्र’ पुस्तक के पहले भाग के फ़्लैप पर छपा है। पत्र 28 अगस्त 1971 का लिखा हुआ है-

“कैलाश बेटे
उफ़- ओ, आज तो तुमने रुला ही दिया। पत्र क्या था, एक चीख़ थी- एक करूणा भरी पुकार- माँ से बिछड़े बेटे की अपनी माँ के लिए। जीते रहो। 
तुम्हारा रूपक- यह तीसरा क़दम कहाँ रखूँ- बहुत प्यारा था। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हारे लिखे रूपक इत्यादि अंग्रेज़ी में अनुवाद कर बीबीसी अपने अंग्रेज़ी के प्रोग्रामों में नश्र करेगी। 
भापा जी का पत्र भी सुना। अल्लाह करे ज़ोर-ए-क़लम और ज़्यादा।
— पृथ्वीराज कपूर”

ज़ाहिर है, पृथ्वी थियेटर्स में काम करने के दौरान पृथ्वीराज कपूर से उनका जो रिश्ता बना था, वह पारिवारिक रिश्ता बन गया था। कपूर ख़ानदान के सदस्य जब भी कभी लंदन आते तो बुश हाउस ज़रूर आते और कैलाश जी के साथ उसी तरह आत्मीयता के साथ पेश आते जैसे वह उनके घर के सदस्य हों।

कैलाश जी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी बड़े नाटकीय अन्दाज़ से अपने वाक्य बोलते थे। सुप्रसिद्ध पत्रकार सईद नक़्वी कैलाश जी की बड़े प्यार से नक़्ल उतारा करते थे। “भई दोस्त, वही अंग्रेज़ का इलाक़ा है हैरो ऑन दि हिल- और वही हैरो का स्पाइरल है, लेकिन किसने सोचा था कि कैलाश बुधवार नाम का एक शख़्स यहाँ अपनी रिहाइश का इन्तिज़ाम करेगा.”

सईद नक़्वी जब जब लंदन आते कैलाश जी से अनुरोध करते “यार वो ज़रा हैरो वाला क़िस्सा सुनाओ।” 
“कौन सा क़िस्सा?” कैलाश जी बड़ी मासूमियत से प्रश्न करते। और तभी सईद नक़्वी कैलाश जी की नक़्ल करते हुए उन्हीं का जुमला दुहरा देते। कैलाश जी थोड़ा झेंपते हुए अपनी बात अपने ख़ास नाटकीय अन्दाज़ में कहते “दोस्त ऐसे ही अंग्रेज़ ने हम पर राज नहीं किया!”

कैलाश बुधवार ने, उन्हीं के अंदाज़ में कहूँ तो, भले ही अंग्रेज़ के मुल्क में पचास वर्ष गुज़ार दिए लेकिन उनके व्यक्तित्व का पोर पोर भारतीय रहा। इसका अर्थ यह नहीं कि वह भारत के घटनाचक्र को तटस्थ और पैनी नज़र से न देखते हों। कैलाश जी की राजनीतिक सोच को किसी एक ख़ेमे में रखना आसान नहीं। वह न दक्षिणपंथी थे, न वामपंथी। मगर ज़ात पात, मज़हब और रंगभेद से ऊपर थे, अंधविश्वासों और सामाजिक कुरीतियाँ के घोर विरोधी थे।

मुझे याद है, सितंबर 1987 में जिस दिन राजस्थान की एक युवती रूप कुँवर के सती होने की ख़बर आई उस दिन ‘आजकल’ कार्यक्रम के लिए कैलाश जी ने एक रिपोर्ट लिखी। रिपोर्ट क्या थी, इस घटना से आहत उनके दिल की आवाज़ थी। उस दिन ओंकारनाथ श्रीवास्तव ‘आजकल’ के प्रस्तुतकर्ता थे और उन्होंने कैलाश जी के लिए लगभग पाँच मिनट का समय रखा था। सती प्रथा के विरोध में उस दिन कैलाश जी के वे उद्गार इतने मार्मिक और प्रभावशाली थे कि अगर सती प्रथा समर्थक भी सुनते तो शर्मिंदा हो जाते। बस मुश्किल यह थी कि कैलाश जी ने जब बोलना शुरू किया तो उन्हें समय का भान न रहा। ओंकार जी बेसब्र नज़र आ रहे थे क्योंकि इसकी वजह से उन्हें कोई और रिपोर्ट छोड़नी पड़ी।

मेरे लिए कैलाश बुधवार का व्यक्तित्व एक छायादार पेड़ की तरह रहा है जिसके साये में मैंने बीबीसी हिंदी सेवा में अपने कार्यकाल के सबसे अधिक रचनात्मक और सुखद वर्ष बिताए हैं। उनके नेतृत्व में सबको अपने अपने ढंग से काम करने की आज़ादी थी, कार्यक्रमों में नए प्रयोग करने की छूट थी। बीबीसी हिंदी सेवा में हर साल क्रिसमस के दिनों में एक नाटक प्रसारित करने की परंपरा को कैलाश जी ने प्रोत्साहन दिया। पृथ्वी थियेटर्स भले ही उनसे वर्षों पहले छूट गया हो लेकिन अभिनय उनकी रगों में लहू की तरह हमेशा दौड़ता रहा। मुझे ख़ुशी है कि मेरे लिखे कई नाटकों में कैलाश जी ने अभिनय किया।

कैलाश बुधवार 1992 में बीबीसी से सेवानिवृत्त हो गए। मैंने 2008 में बीबीसी को अलविदा कहा। लेकिन बीबीसी के बाद भी लंदन में कैलाश जी की मौजूदगी दिल को तसल्ली देती रही। उन्नीस सौ इक्यासी में एक लड़की का अकेले विदेश आकर नौकरी करना और नए समाज में बसना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। मेरे लिए कैलाश जी सिर्फ़ बॉस नहीं थे, लंदन के मेरे शुरुआती वर्षों में उनकी और उनकी पत्नी विनोदिनी जी की भूमिका मेरे जीवन में एक अभिभावक की भी रही। पिछले कुछ समय से मिलना भले कम रहा हो, लेकिन परस्पर स्नेह और सम्मान का वह रिश्ता यथावत रहा।

अपने पुराने साथियों से संबंध बनाए रखने का बहुत बड़ा श्रेय कैलाश जी को जाता है। मैंने उन्हें हर एक के साथ ख़ुलूस और गर्मजोशी से बात करते देखा। वह कभी किसी महफ़िल में कोई कड़वी या विवादास्पद बात नहीं करते थे। शायद इन ख़ूबियों का कारण उनका परिवार और परिवार से मिलने वाला अपार प्रेम था। चार साल पहले 2016 में उन्होंने अपने विवाह की साठवीं वर्षगाँठ मनाई। दावत में उनके परिवार की विभिन्न पीढ़ियाँ एक साथ मौजूद थीं, बीबीसी के सभी नए पुराने सहयोगी और बीबीसी से इतर उनके मित्र भी शामिल थे। वह दावत इस बात का जीता जागता प्रमाण थी कि कैलाश बुधवार के जीवन में जो भी आया, वह सदा के लिए उनके परिवार का हिस्सा बन गया।

मुझे याद है एक बार मैंने कैलाश जी से पूछा, आपको कभी ग़ुस्सा नहीं आता कैलाश भाई, बावजूद इसके कि हम लोग कभी कभी गुस्ताख़ी कर जाते हैं? उन्होंने मुस्करा कर कहा, “दोस्त, मैं नीलकंठ विषपायी की तरह सबका ग़ुस्सा सोख़ने की कोशिश करता हूँ।”

Note: Achala Sharma joined BBC Hindi Service in 1981 and went on to become the Head of the service (1997-2008). बीबीसी प्रसारक अचला शर्मा 1997-2008 के दौरान बी॰बी॰सी॰ हिंदी सेवा की प्रमुख रह चुकी हैं।

Picture Courtesy: BBC Album

 

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