हिंदी की प्रख्यात लेखिका और स्वतंत्र पत्रकार नासिरा शर्मा ईरानी इस्लामी गणराज्य के संस्थापक आयतुल्लाह रूहुल्लाह ख़ुमैनी के सत्ता में आने के बाद उनसे बातचीत करने वाली पहली दक्षिण एशियाई महिला पत्रकार थीं। वे उन गिने चुने अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों में भी शामिल थीं जिन्होंने १९८० में शुरू हुए ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान इराक़ द्वारा बंदी बनाए गए ईरानी बाल सैनिकों से बातचीत की।
१९७९ में ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद शाह मुहम्मद पहलवी को अपदस्थ होने के बाद ईरान छोड़ कर भागना पड़ा। निर्वासन का जीवन बिता रहे आयतुल्लाह ख़ुमैनी पैरिस से ईरान लौटे और ईरानी इस्लामी गणराज्य की स्थापना हुई। आयतुल्ला ख़ुमैनी ईरान के सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता घोषित किए गए और अली हाशमी रफ़संजानी राष्ट्रपति पद पर नियुक्त हुए।
ऐसे समय जब ईरान इस्लामी क्रांति की चालीसवीं वर्षगाँठ मना रहा है, नासिरा शर्मा ने एक बातचीत में सिनेइंक की अचला शर्मा को बताया कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी के साथ उनकी मुलाक़ात कैसे संभव हुई। उनसे पहले इटली की विश्व प्रसिद्ध पत्रकार ओरियाना फ़लाची का १९७९ में किया गया इंटरव्यू दुनिया के अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाया रहा था। लेकिन नासिरा बताती हैं कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी के सत्ता में आने के बाद वे पहली दक्षिण एशियाई महिला थीं जिनसे वे मिलने के लिए राज़ी हुए। नासिरा शर्मा चूँकि फ़ारसी भाषा जानती थीं इसलिए बातचीत फ़ारसी में ही हुई। मुलाक़ात से पहले की सुरक्षा जाँच तगड़ी थी मगर जब वे आयतुल्लाह ख़ुमैनी के सामने पहुँचीं तो उन्हें यह देख कर अचंभा हुआ कि यह वही शख़्स है जिसके एक दस्तख़त पर ईरान इस्लामी गणराज्य में अच्छे बुरे बड़े बड़े फ़ैसले होते हैं। नासिरा कहती हैं कि उन्हें लगा जैसे घर का कोई बुज़ुर्ग सामने बैठा हो। उन्हें अफ़सोस है कि न तो उस मुलाक़ात की कोई तस्वीर है और न ही उन्हें कोई मुश्किल सवाल करने की इजाज़त दी गई। लेकिन, यह मुलाक़ात ईरान के साथ उनके लंबे रिश्ते की शुरूआत थी।
सितंबर १९८० में खाड़ी युद्ध शुरू हुआ था जो अगले आठ साल तक चला। खाड़ी युद्ध पहले पहल ईरानी क्षेत्रों में केंद्रित रहा और बाद में इराक़ की धरती पर। आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने ईरानी क्रांति के बाद ईरानी सेना से अलग पासदारान उर्फ़ रेवूल्यूशनरी गार्ड्स नामक बल का गठन किया था जिसका उद्देश्य शाही सेना में मौजूद क्रांति विरोधी तत्वों पर नज़र रखना था। नवंबर १९७९ में इसी बल के तहत बसीज नाम की एक स्वैच्छिक सेना का गठन किया गया जिसमें अट्ठारह साल से भी छोटे लड़कों से लेकर पैंतालीस साल से बड़े लोग भर्ती किए जाते थे। ये अर्द्धप्रशिक्षित सैनिक आयतुल्लाह ख़ुमैनी के नाम पर क़ुर्बान होने के लिए तैयार थे। ईरान इराक़ युद्ध के दौरान बसीज में लगभग दस लाख लोग स्वेच्छा से शामिल हुए और इनमें बहुत से कम उम्र के बच्चे भी थे।
१९८३ में नासिरा शर्मा अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों की एक टोली में बग़दाद के नज़दीक अल रमादी बंदी शिविर में गईं। वहाँ उनकी मुलाक़ात उन ईरानी बाल युद्ध बंदियों से हुई जिन्हें इराक़ वापस ईरान भेजना चाहता था लेकिन ईरान ने यह कहकर वापस लेने से इन्कार कर दिया था कि वे ईरानी बच्चे नहीं हैं। इन बच्चों के साथ नासिरा शर्मा की बातचीत की फ़िल्म एक फ़्रांसीसी टेलिविज़न चैनल ‘फ़्राँस-टू’ पर दिखाई गई और ईरान की अंतर्राष्ट्रीय भर्त्सना का कारण बनी। नासिरा बताती हैं कि जिन बाल बंदियों से उन्होंने बातचीत की थी वे पूरी तरह मज़हबी थे और उनकी आयतुल्लाह ख़ुमैनी में पूरी आस्था थी। एक लड़के ने उनसे कहा कि वह किसी ऐसी ग़ैर औरत से बात नहीं कर सकता जो हिजाब न पहने हो।
बाल सैनिकों की भर्ती को रोकने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने इन ईरानी बाल सैनिकों को लेकर चिंता प्रकट की और अमरीकी अख़बार न्यूयॉर्क टाईम्स ने ६ सितंबर १९८३ को एक ख़बर छापी कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने ईरान से बाल सैनिकों की युद्ध के लिए भर्ती को रोकने का आग्रह किया है।इराक़ स्थित युद्ध बंदी शिविरों का दौरा करने के बाद स्विट्ज़रलैंड की मानवाधिकार संस्थाओं ने बताया कि इराक़ी शिविरों में कम से कम २४० ऐसे बंदी थे जिनकी उम्र बारह से अट्ठारह साल के बीच थी।
बहरहाल, नासिरा शर्मा के जीवन में एक और नाटकीय क्षण तब आया जब लगभग पैंतीस वर्षों के बाद २०१७ में वे एक बार फिर ईरान गईं वहाँ उनकी मुलाक़ात उन्हीं बच्चों से हुई जो अब बच्चे नहीं थे, बड़े हो गए थे और उनके अपने परिवार थे। उनमें से महदी नाम के एक लड़के की आत्मकथा पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी है। इन सबको देख कर नासिरा बहुत भावुक हो गईं और रो पड़ीं। पर इस बात का उन्हें अफ़सोस हुआ कि उनमें से कुछ लोग आज भी यही समझते हैं कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने उन्हें वापस लेने से कभी इन्कार नहीं किया था।
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