हिंदी जितनी अच्छी लिखी जाती है क्या उतनी ही अच्छी सुनने को भी मिलती है? हमें आम तौर पर यह उत्तर सुनने को मिलता है कि धीरे धीरे करके अच्छी हिंदी बोलने वाले कम होते जा रहे हैं।

सिनेइंक हिंदी उत्सव के अंतर्गत हमारी कोशिश रहेगी कि अच्छी हिंदी बोलने वालों से आपकी मुलाक़ात कराई जाय। साथ ही हिंदी की कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक रचनाओं को सही उच्चारण के साथ श्रोताओं तक पहुँचाया जाए।

सिनेइंक हिंदी उत्सव की शुरूआत हम हिंदी की कुछ चुनी हुई कविताओं के साथ करेंगे जिनका पाठ करेंगे देवेश वर्मा। यह वही हज़रत हैं जो उर्दू नज़्मों की ख़ूबसूरत अदायगी के लिए मशहूर हैं, लेकिन कम लोग जानते हैं कि देवेश वर्मा हिंदी कविताओं का पाठ भी उसी तरह भाव और सही उच्चारण के साथ करते हैं। इनके अलावा हिंदी के कुछ प्रसिद्ध कथाकारों के साथ बातचीत और उनकी कहानियाँ होंगी। यह सिलसिला महिला लेखिकाओं से शुरू होगा जिनमें से कुछ की कहानियाँ आप ख़ुद उनकी ज़बानी सुनेंगे। सिनेइंक हिंदी उत्सव के तहत हम हिंदी के कुछ जाने माने प्रसारकों के साथ बातचीत भी करेंगे।

तो सिनेइंक के इस हिंदी उत्सव के बहाने कुछ बातें प्रसारण जगत की हिंदी के बारे में हो जाएँ।
यूँ तो हम हिंदी वालों के लिए यह ख़ुशी की बात है कि पिछले कुछ वर्षों से रेडियो, टेलिविज़न, इंटरनेट पर चारों तरफ़ हिंदी का बोलबाला है मगर अफ़सोस कि इन तमाम मंचों पर हिंदी में साफ़ उच्चारण का ख़ासा अभाव है। इंटरनेट पर तरह तरह के पॉडकास्ट सुनने को मिलते हैं जिनमें साहित्यिक रचनाओं को स्वर देने की सुंदर परंपरा भी शुरू हुई है लेकिन वहाँ भी बहुत बार उच्चारण दोष कानों में खटकता है। अगर अच्छा लिखा हुआ ठीक तरह से पढ़ा न जाए तो उसका अभीष्ट प्रभाव कैसे पड़ेगा?

इन दिनों जो भाषा सुनाई पड़ती है उसे सुन कर लगता है कि बोलने वाले ने शायद हिंदी की वर्णमाला तक नहीं देखी। जैसे युद्ध शब्द का सही उच्चारण करने वाले बहुत कम रह गए हैं। अक्सर युद्ध की जगह मात्र ‘युद’ सुनाई पड़ता है। न और ण का अंतर लुप्तप्राय है जिसके चलते बाण शब्द बान और कारण शब्द अक्सर कारन ही बोला जाता है। है और हैं की ध्वनि का अंतर भी ग़ायब होता जा रहा है।

एक समस्या यह है कि उर्दू के जो बहुत से शब्द आधुनिक हिंदी में पानी में नमक की तरह घुलमिल चुके हैं और रोज़मर्रा की बातचीत में शामिल रहते हैं, वे भी ग़लत बोले जाते हैं। जैसे रोज़ का रोज, ज़रा का जरा, हज़ार का हजार, ज़ुकाम का जुकाम, ज़िक्र का जिक्र, फ़ालतू का फालतू, ग़म का गम, ग़ुस्सा का गुस्सा और तरबूज़ का तरबूज हो जाता है। ख़बर बन जाती है खबर, और ख़ुशी, बिना नुक़्ते के मात्र खुशी रह जाती है। इसकी एक वजह यह भी है कि हिंदी में ये शब्द अक्सर बिना नुक़्तों के छपते हैं। और बोलने वाला वही बोलता है जो वह लिखा हुआ देखता है।

पर इससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि जहाँ नुक़्ता नहीं लगना चाहिए वहाँ अक्सर अकारण ही लगाया जाता है। जैसे मौजूद की जगह मौज़ूद और फिर की जगह फ़िर कहने की ग़लती बहुत आम है। बेगम साहिबा, बेग़म बना दी जाती हैं भले ही उनकी ज़िंदगी में बहुत से ग़म हों। लोग यह भूल जाते हैं कि उर्दू से आए इन शब्दों का प्रयोग आवश्यक नहीं है। अगर आप सही उच्चारण करने में असमर्थ हैं तो हिंदी के अपार शब्द भण्डार में इनके बहुत से पर्याय मौजूद हैं। हाँ, अगर थोड़ी सी कोशिश कर लेंगे तो आप ख़ुद प्रत्येक शब्द को अच्छी तरह बोलने की क्षमता रखते हैं। लेकिन तकलीफ़ तब और बढ़ती है जब हिंदी के आम शब्दों जैसे फल, फूल, फुहार, सफल आदि में बेवजह नुक़्ता लगता है। यही नहीं, यह अवांछित नुक़्ता खाना खाने की मामूली क्रिया को ख़ाना ख़ाने की ख़ास क्रिया में बदल देता है। कुछ ऐसे भी हैं जो ज़िंदगी को तो जिंदगी कहते हैं मगर जीवन को ज़ीवन।

कुछ लोगों का तर्क यह हो सकता है कि हिंदी में विभिन्न क्षेत्रों और अंचलों की अपनी अपनी सुगंध शामिल है, उसके शब्द भंडार में अनेक बोलियों और भाषाओं के शब्द सहज रूप से घुलमिल गए हैं, इसलिए बोलचाल में हिंदी के कई रंग दिखाई देते हैं। नतीजतन, उच्चारण पर क्षेत्रीय प्रभाव स्वाभाविक है। निस्सन्देह, हिंदी बोलचाल की ये तमाम प्रांतीय विभिन्नताएँ हिंदी की विशालता और परिपक्वता का प्रमाण हैं।

यहाँ हिंदी भाषा की व्यापकता और लोकप्रियता पर तो बहस ही नहीं है। हिंदी सिर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण भाषा नहीं है कि वह राजभाषा है या इसलिए कि उसमें उत्कृष्ट साहित्य रचा गया है। बल्कि हिंदी इसलिए महत्वपूर्ण भाषा है क्योंकि भारत के हिंदी और अहिंदी भाषी क्षेत्रों से लेकर दुनिया के कोने कोने में हिंदी बोलने और समझने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या है। जो हिंदी लिपि लिखना या पढ़ना नहीं जानते वे भी हिंदी समझ लेते हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिंदी की इस लोकप्रियता में हिंदी फ़िल्मों और उनके संगीत की भी बड़ी भूमिका है। लेकिन अफ़सोस कि पहले जहाँ फ़िल्मों में संवाद और गीत लिखने वाले लगभग सभी लोग भाषा के जानकार हुआ करते थे, वहाँ अब ऐसे लोगों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। और आजकल के गाने वालों के उच्चारण की बात न ही करें तो अच्छा है।

सवाल यह उठता है, कि क्या हिंदी बोलने का कोई एक मानक बन सकता है? या बनना चाहिए?
बात आम बोलचाल की नहीं बल्कि समाचार माध्यमों और संवाद के मंचों पर बोली जाने वाली हिंदी की है जिसे आम आदमी सुनता है और उसे ही भाषा व उच्चारण का आदर्श मान कर ग्रहण करता है। इस नाते अख़बारों, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। वे श्रोताओं, दर्शकों और पाठकों के रोल मॉडल होते हैं। लेकिन उससे भी बड़ा दायित्व हिंदी पढ़ने और पढ़ाने वालों का है।

एक प्रसारक के रूप में मेरी राय है कि आप चाहे विशुद्ध हिंदी के पक्षधर हों या हिंदी-उर्दू की मिली जुली हिंदुस्तानी ज़बान के हिमायती, जो भी बोलें उसके उच्चारण के साथ न्याय करें।
आपकी क्या राय है, सोचिए और अपने विचार हमें लिखिए।

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